Tuesday 9 September 2014

पढ़ें: कहां, कैसे और क्यों होता है ...




नई दिल्ली। भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष के पंद्रह दिन पितृपक्ष कहे जाते हैं। ये वक्त होता है पूर्वजों का ऋण यानी कर्ज उतारने का। पितृपक्ष यानी महालया में कर्मकांड की विधियां और विधान अलग-अलग हैं। श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं। इस दौरान पूर्वजों की मृत्युतिथि पर श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों की मान्यता है कि पितृपक्ष में पूर्वजों को याद कर किया जाने वाला पिंडदान सीधे उन तक पहुंचता है और उन्हें सीधे स्वर्ग तक ले जाता है। माता-पिता और पुरखों की मृत्यु के बाद उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले इसी कर्मकांड को कहा जाता है पितृ श्राद्ध।


गयासुर की कहानी


कहते हैं गयासुर की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ब्रह्मा ने वर दिया था कि उसकी मृत्यु संसार में जन्म लेने वाले किसी भी व्यक्ति के हाथों नहीं होगी। वर पाने के बाद गयासुर ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। वो अत्याचारी हो गया। एक दिन जब वो द्वारका वन से गुजर रहा था तब उसने एक महात्मा को तपस्या करते देखा। थके गयासुर ने अपनी प्यास बुझाने के लिए तपस्वी से उनका रक्त मांगा, लेकिन तपस्वी ने उसे मुक्ति का ज्ञान दिया और मुक्ति के लिए बद्रीनाथ में नारायण के दर्शन के लिए कहा। गयासुर बद्रीनाथ पहुंच गया, लेकिन नारायण को मंदिर में ना पाकर वो उनका कमलासन लेकर उड़ने लगा। इस पर नारायण ने आकाश में ही गयासुर का केश पकड़कर उसे रोक लिया जिस जगह भगवान ने गयासुर को रोका, वो गया के नाम से प्रसिद्ध हो गई।


गयासुर को वर देने से पहले भगवान ने उससे युद्ध भी किया था। उन्होंने पहला प्रहार गदा से किया, लेकिन गयासुर ने उसी कमलासन को आगे कर दिया, जिसे वो बद्रीनाथ से लेकर जा रहा था। आसन का एक टुकड़ा बद्रीनाथ के पास गिरा। यही जगह आज बद्रीनाथ के पास ब्रह्मकपाल नाम से मशहूर है, जहां पितृपक्ष के दौरान लोग पूर्वजों को पिंडदान करते हैं। नारायण के दूसरे वार पर कमलासन का टुकड़ा उस जगह गिरा जहां आज हरिद्वार है। हरिद्वार में ये जगह नारायणी शिला के नाम से मशहूर है। यही वजह है कि पितृ पक्ष में हरिद्वार में भी भारी संख्या में लोग जुटते हैं और अपने पुरखों के लिए पिंडदान करते हैं।


हरिद्वार और बद्रीनाथ में श्राद्ध की महत्ता ठीक वैसी ही है जैसी कि गया की है, क्योंकि नारायण के प्रहार से कमलासन का तीसरा हिस्सा जो गयासुर के पास रह गया था, उसे लेकर वो गया चला आया था। यही जगह विष्णु चरण या विष्णु पाद के नाम से प्रसिद्ध हो गई लेकिन कमलासन के नष्ट हो जाने के बाद गयासुर ने खुद नारायण से मुक्ति की प्रार्थना की। इस पर भगवान ने न सिर्फ उसे मुक्ति दी बल्कि कहा कि जिन तीन जगहों पर उनका कमलासन गिरा है, वहां पूजा करने से मुक्ति मिलेगी। इसी पौराणिक मान्यता के चलते इस बार भी गया के पितृ पक्ष मेले में दस लाख से ज्यादा लोगों के आने की संभावना है।


पितृपक्ष में क्या करें और क्या न करें


पितृपक्ष में सूर्य दक्षिणायन होता है। शास्त्रों के अनुसार सूर्य इस दौरान श्राद्ध तृप्त पितरों की आत्माओं को मुक्ति का मार्ग देता है। कहा जाता है कि इसीलिए पितर अपने दिवंगत होने की तिथि के दिन, पुत्र-पौत्रों से उम्मीद रखते हैं कि कोई श्रद्धापूर्वक उनके उद्धार के लिए पिंडदान तर्पण और श्राद्ध करे लेकिन ऐसा करते हुए बहुत सी बातों का ख्याल रखना भी जरूरी है। जैसे श्राद्ध का समय तब होता है जब सूर्य की छाया पैरों पर पड़ने लगे। यानी दोपहर के बाद ही श्राद्ध करना चाहिए। सुबह-सुबह या 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंचता है। तैत्रीय संहिता के अनुसार पूर्वजों की पूजा हमेशा, दाएं कंधे में जनेऊ डालकर और दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके ही करनी चाहिए। माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में दिशाएं देवताओं, मनुष्यों और रुद्रों में बंट गई थीं, इसमें दक्षिण दिशा पितरों के हिस्से में आई थी।


श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है। जिसके अनुसारः-


1-श्राद्ध में सात पदार्थ- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल महत्वपूर्ण हैं।


2- तुलसी से पितृगण प्रलयकाल तक प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं। मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं।


3-श्राद्ध सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र से या पत्तल के प्रयोग से करना चाहिए।


4-आसन में लोहे का आसन इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।


5-केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।


लेकिन पितृ पक्ष को लेकर कुछ गलत धारणाएं भी बन गई हैं। ज्योतिषियों का मानना है कि श्राद्ध पक्ष में मांगलिक कार्य यानी सगाई और शादी से लेकर गृह प्रवेश निषेध है, लेकिन श्राद्ध में खरीदारी अशुभ नहीं शुभ है। इससे पूर्वजों का आशीर्वाद मिलता है। इस बार 16 दिन में 9 दिन खरीदारी के लिए श्रेष्ठ माने गए हैं।


पिंडदान की विशेष जगहें


शास्त्रों में पिंडदान के लिए तीन जगहों को सबसे विशेष माना गया है। इनमें बद्रीनाथ भी है। बद्रीनाथ के पास ब्रह्मकपाल सिद्ध क्षेत्र में पितृदोष मुक्ति के लिए तर्पण का विधान है। हरिद्वार में नारायणी शिला के पास लोग पूर्वजों का पिंडदान करते हैं। बिहार की राजधानी पटना से 100 किलोमीटर दूर गया में साल में एक बार 17 दिन के लिए मेला लगता है। पितृ-पक्ष मेला। कहा जाता है पितृ पक्ष में फल्गु नदी के तट पर विष्णुपद मंदिर के करीब और अक्षयवट के पास पिंडदान करने से पूर्वजों को मुक्ति मिलती है।


पिंडदान की परंपरा सृष्टी के रचनाकाल से ही शुरू है। जिसका वर्णन वायु पुराण, अग्नि पुराण और गरुण पुराण में है। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने अपने पूर्वजों का इसी फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किया था। और त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने भी अपने पिता राजा दशरथ के मरने के बाद यहीं पिंडदान किया था। यहां सीताकुंड नाम से एक मंदिर भी है।


एक वक्त देश में श्राद्ध के लिए 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। हालांकि देश में श्राद्ध के लिए गया, बद्रीनाथ, हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, पुष्कर सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है। इन्हीं स्थानों में एक महत्वपूर्ण जगह है चित्रकूट।


श्राद्ध तीर्थ के तौर पर चित्रकूट की कथा भगवान राम से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि राम का वनवास न सह पाने से जब राजा दशरथ का निधन हुआ तब राम चित्रकूट में थे। उन्होंने चित्रकूट के ही घाट पर पिता का श्राद्ध किया था।


राजा दशरथ के श्राद्ध से जुड़ी अलग-अलग कहानियों में एक तीर्थ राज प्रयाग से भी जुड़ी है। कहा जाता है कि भगवान राम ने त्रिवेणी तट पर ही अपने पूर्वजों का तर्पण किया था। कहा जाता है कि यहां राजाराम के पंडों की वो पीढ़ी आज भी है, जिसे वो अयोध्या से लेकर आए थे। प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों के मुताबिक भगवान विष्णु चरण भी इलाहाबाद में ही विराजमान माने जाते हैं। इसीलिए श्रद्धालु अपने पूर्वजों के मोक्ष की कामना लेकर यहां आते हैं।


पितरों के मुक्ति के स्थानों का जिक्र काशी के बिना अधूरा ही है। काशी के अति प्राचीन पिशाच मोचन कुंड पर बहुत विशेष माना जाना वाला त्रिपिंडी श्राद्ध होता है। त्रिपिंडी श्राद्ध पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद होने वाली व्याधियों से मुक्ति दिलाता है। श्राद्ध की इस विधि और पिशाच मोचन तीर्थस्थली का वर्णन गरुण पुराण में भी मिलता है।


मध्यप्रदेश के जबलपुर के ग्वारीघाट में नर्मदा के तट पर लोग पितरों के लिए पिंडदान करते हैं, जो श्राद्ध के लिए तय 55 स्थानों में शामिल है। पिंडदान के लिए हरिद्वार तो शुभ माना ही जाता है, ऋषिकेश की भी महत्ता कम नहीं हैं।


उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले के सोरो में पिंडदान के लिए भारी भीड़ जुटती है। मान्यता है कि सृष्टि की रचना करने वाले भगवान विष्णु के तीसरे अवतार वारह ने यहीं अवतार लिया था और असुर हिरण्याक्ष का वध किया था। इसके बाद भगवान वारह ने एकादशी के दिन यहीं पर अपना पिंडदान किया था।


अलग-अलग जगहों में पितरों के पिंडदान को लेकर ऐसी बहुत सी कहानियां हैं। एक कहानी ये भी है कि श्रीराम ने हिमाचल प्रदेश की आध्यात्मिक शक्ति को देखकर वहां भी अपने पूर्वजों का श्राद्ध किया था, इसके अलावा हरियाणा में पिहोवा, महाराष्ट्र में त्रयंबकेश्वर जैसी जगह भी श्राद्ध तीर्थ कहे जाते हैं।


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